मन से जब पीड़ा रूठ गई
लिखने की आदत छूट गई
कवि बनने की अभिलाषा थी वो घीरे धीरे टूट गई
मन बोझिल सा हो जाता है जब शाम सुहानी लगती है
क्योंकि तब लिखने की खातिर फिर कलम उठानी पड़ती है |
मन को कितना ही समझाया यूँ नहीं शरारत करते हैं
क्यों कहते थे पहले तुम 'हम कविताई का दम भरते हैं'
हम राह बचाकर चलते हैं कोई हिस्सा ना मिल जाए
मन का खोया सपनीला सा कोई किस्सा ना मिल जाए
हम जानबूझकर कहते हैं बदनाम कहानी लगती है
क्योंकि तब लिखने की खातिर फिर कलम उठानी पड़ती है
कवि बनने की अभिलाषा थी वो घीरे धीरे टूट गई
मन बोझिल सा हो जाता है जब शाम सुहानी लगती है
क्योंकि तब लिखने की खातिर फिर कलम उठानी पड़ती है |
मन को कितना ही समझाया यूँ नहीं शरारत करते हैं
क्यों कहते थे पहले तुम 'हम कविताई का दम भरते हैं'
हम राह बचाकर चलते हैं कोई हिस्सा ना मिल जाए
मन का खोया सपनीला सा कोई किस्सा ना मिल जाए
हम जानबूझकर कहते हैं बदनाम कहानी लगती है
क्योंकि तब लिखने की खातिर फिर कलम उठानी पड़ती है
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