Main Menu

Sunday, February 2, 2014

तुम्हारी जुल्फ़ों

तुम्हारी जुल्फ़ों का पता घटाओं को दे दूं क्या
जाने कब से इस शहर में नहीं बरसात हुई

पूरे गांव में गूंजती होगी तेरी पायल की झनक
खत मिला तो मगर न तुझ से कोई बात हुई

दिन गुजरता ही नहीं, रात है कि जाती ही नहीं
तेरे बिन यह घर भी मेरे लिये तो हवालात हुई

नींद आती नहीं याद आते हैं वो मंजर मुझ को
जब हम दोनों की छुपकर अकेले में मुलाकात हुई

अपने दिल को जल्दी मिलने की आस दे दूँ क्या
इस खलिश इस आरजू को "प्यास" कह दूँ क्या

No comments:

Post a Comment