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Wednesday, January 1, 2014

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Dhire Dhire ye Jakhm Bhi Bhar Chale Hai

धीरे धीरे ये ज़ख़्म भी भर चले हैं!
कुछ कमी दर्द मैं भी आई है !
कुछ सुलगना कम हुआ है ,
कुछ अंगारो ने ठंडक पाई है !
अब फूल खिलने का समय है,
अब मौसम बहारो का आने को है ,
अब जान जिस्म मैं लौटी है ,
अब जीने की वजह पाई है !

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